जालोर की आन-बान-शान का प्रतीक जालोर दुर्ग आज भी अपने शौर्य की गाथा गाता है। यह दुर्ग राज्य सरकार के पुरातत्व विभाग की धरोहर है एवं वर्ष 1956 से संरक्षित स्मारक है। जालोर दुर्ग पर जाने के लिए शहर के मध्य से ढेडी-मेडी गलियों से होकर जाना पड़ता है।
जालोर दुर्ग नगर के दक्षिण में 1200 फीट ऊंची पहाडी पर स्थित है। दुर्ग में जाने के लिये एक टेढा-मेढा पहाडी रास्ता जाता है जिसकी ऊँचाई कदम-कदम पर बढ़ती हुई प्रतीत होती है। इस चढ़ाई को पार करने पर प्रथम द्वार आता है जिसे सूरजपोल करते है। धनुषाकार छत से आच्छादित यह द्वार आज भी बडा सुन्दर दिखाई देता है। इस पर छो

तीसरा द्वार चान्दपोल कहलाता है जो अन्य द्वारों से अधिक भव्य, मजबूत एवम् सुन्दर है। यहां से रास्ते के दोनो तरफ साथ चलने वाली प्राचीर कई भागों में विभक्त होकर गोलाकर सुदीर्ध पर्वत प्रदेश को समेटती हुई फैल जाती है। तीसरे से चौथे द्वार के बीच का स्थल बडा सुरक्षित है। चौथा द्वार सिरे पोल कहलाता है। यहां पहुचने से पहले प्राचीर की एक पंक्ति बाई ओर से ऊपर उठकर पहाड़ी के शीर्ष भाग को छू लेती है ओर दूसरी दाहिनी ओर घूमकर गिरि श्रृंगो को समेटकर चक्राकार घूमती हुई प्रथम प्राचीर से आ मिलती है।
किले की लम्बाई पौन किलोमीटर तथा चौड़ाई लगभग आधा किलोमीटर है। इस

चौमुखा जैन मिन्दर से मानसिंह के महलों की ओर जाते समय ठीक तिराहे पर एक परमारकालीन कीर्ति स्तंभ एक छोटे चबूतरे पर आरक्षित स्थिति में खडा है। संभवत: परमारों की यही अन्तिम निशानी इस किले में बची है। मानव आकृति के कद का लाल पत्थर का यह कीर्ति स्तंभ अपनी कलापूर्ण गढ़ाई के कारण बरबस ही पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता हैं। वषो पूर्व यह स्तंभ किसी बावड़ी की सफाई करते समय मिला था, जिसे यहां स्थापित कर दिया गया है।
( 2 )
मानसिंह के महलों में


वीरमदेव की चौकी पहाड़ी की सबसे ऊंची जगह पर दक्षिण पूर्व ही ओर स्थित है। यहां से बहुत दूर-दूर तक का दृश्य देखा जा सकता है। यहां जालोर राज्य का ध्वज लगा रहता था। वर्तमान में इसके पास ही एक मिस्जद है। अंग्रेजों के विरुद्ध किए गए स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान गणेशलाल व्यास, मथुरादास माथुर, फतहराज जोशी एवम् तुलसीदास राठी आदि नेताओं को इसी किले में नजरबन्द किया गया था।

इसलिए भी है विशेष महत्त्व
जालोर दुर्ग मारवाड़ का सुदृढ़ गढ़ है। इसे परमारों ने बनवाया था। यह दुर्ग क्रमश: परमारों, चौहनों और राठौड़ों के आधीन रहा। यह राजस्थान में ही नही अपितु सारे देश में अपनी प्राचीनता, सुदृढ़ता और सोनगरा चौहानों के अतुल शौर्य के कारण प्रसिद्ध रहा है। जालौर जिले का पूर्वी और दक्षिणी भाग पहाड़ी शृंखला से आवृत है। इस पहाड़ी श्रृंखला पर उस काल में सघन वनावली छायी हुई थी। अरावली की श्रृंखला जिले की पूर्वी सीमा के साथ-साथ चली गई है तथा इसकी सबसे ऊँची चोटी ३२५३ फुट ऊँची है। इसकी दूसरी शाखा जालौर के केन्द्र भाग में फैली है जो २४०८ फुट ऊँची है। इस श्रृंखला का नाम सोनगिरि है। सोनगिरि पर्वत पर ही जालौर का विशाल दुर्ग विद्यमान है। प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम जाबालीपुर और किले का नाम सुवर्णगिरि मिलता है। सुवर्णगिरि शब्द का अपभ्रंशरुप सोनलगढ़ हो गया और इसी से यहां के चौहान सोनगरा कहलाए। जहां जालौर दुर्ग की स्थिति है उस स्थान पर सोनगिरि की ऊँचाई २४०८ फुट है। यहां पहाड़ी के शीर्ष भाग पर ८०० गज लम्बा और ४०० गज चौड़ा समतल मैदान है। इस मैदान के चारों ओर विशाल बुजाç और सुदृढ़ प्राचीरों से घेर कर दुर्ग का निर्माण किया गया है। गोल बिन्दु के आकार में दुर्ग की रचना है जिसके दोनों पार्श्व भागों में सीधी मोर्चा बन्दी युक्त पहाड़ी पंक्ति है। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए एक टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता पहाड़ी पर जाता है। अनेक सुदीर्घ शिलाओं की परिक्रमा करता हुआ यह मार्ग किले के प्रथम द्वार तक पहुँचता है। किले का प्रथम द्वार बड़ा सुन्दर है। नीचे के अन्त: पाश्वाç पर रक्षकों के निवास स्थल हैं। सामने की तोपों की मार से बचने के लिए एक विशाल प्राचीर धूमकर इस द्वार को सामने से ढक देती है। यह दीवार २५ फुट ऊँची एंव १५ फुट चौड़ी है। इस द्वार के एक ओर मोटा बुर्ज और दूसरी ओर प्राचीर का भाग है। यहां से दोनों ओर दीवारों से घिरा हुआ किले का मार्ग ऊपर की ओर बढ़ता है। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं नीचे की गहराई अधिक होती जाती है। इन प्राचीरों के पास मिट्टी के ऊँचे स्थल बने हुए हैं जिन पर रखी तोपों से आक्रमणकारियों पर मार की जाती थी। प्राचीरों की चौड़ाई यहां १५-२० फुट तक हो जाती है। इस सुरक्षित मार्ग पर लगभग आधा मील चढ़ने के बाद किले का दूसरा दरवाजा दृष्टिगोचर होता है। इस दरवाजे का युद्धकला की दृष्टिकोण से विशेष महत्व है। दूसरे दरवाजे से आगे किले का तीसरा और मुख्य द्वार है। यह द्वार दूसरे द्वारों से विशालतर है। इसके दरवाजे भी अधिक मजबूत हैं। यहां से रास्ते के दोनों ओर साथ चलने वाली प्राचीर श्रंखला कई भागों में विभक्त होकर गोलाकार सुदीर्घ पर्वत प्रदेश को समेटती हुई फैल जाती है। तीसरे व चौथे द्वार के मध्य की भूमि बड़ी सुरक्षित है। प्राचीर की एक पंक्ति तो बांई ओर से ऊपर उठकर पहाड़ी के शीर्ष भाग को छू लेती है तथा दूसरी दाहिनी ओर घूमकर मैदानों पर छाई हुई चोटियों को समेटकर चक्राकार घूमकर प्रथम प्राचीर की पंक्ति से आ मिलती है। यहां स्थान-स्थान पर विशाल एंव विविध प्रकार के बुर्ज बनाए गए हैं। कुछ स्वतंत्र बुर्ज प्राचीर से अलग हैं। दोनों की ओर गहराई ऊपर से देखने पर भयावह लगती है। जालौर दुर्ग का निर्माण परमार राजाओं ने १०वीं शताब्दी में करवाया था। पश्चिमी राजस्थान में परमारो की शक्ति उस समय चरम सीमा पर थी। धारावर्ष परमार बड़ा शक्तिशाली था। उसके शिलालेखों से, जो जालौर से प्राप्त हुए हैं, अनुमान लगाया जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण उसी ने करवाया था। वस्तुकला की दृष्टि से किले का निर्माण हिन्दु शैली से हुआ है। परंतु इसके विशाल प्रांगण में एक ओर मुसलमान संत मलिक शाह की मस्जिद है। जालौर दुर्ग में जल के अतुल भंड़ार हैं। सैनिकों के आवास बने हुए हैं। दुर्ग के निर्माण की विशेषता के कारण तोपों की बाहर से की गई मार से किले के अन्त: भाग को जरा भी हानि नही पहुँची है। किले में इधर-उधर तोपें बिखरी पड़ी हैं। ये तोपों विगत संघर्षमय युगों की याद ताजा करतीं है। १२वीं शताब्दी तक जालौर दुर्ग अपने निर्माता परमारों के अधिकार में रहा। १२वीं शताब्दी में गुजरात के सोलंकियों ने जालौर पर आक्रमण करके परमारों को कुचल दिया और परमारों ने सिद्धराज जयसिंह का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। सिद्धराज की मृत्यु के बाद कीर्कित्तपाल चौहान ने दुर्ग को घेर लिया। कई माह के कठोर प्रतिरोध के बाद कीर्कित्तपाल इस दुर्ग पर अपना अधिकार करने में सफल रहा। कीर्कित्तपाल के पश्चात समर सिंह और उदयसिंह जालौर के शासक हुए। उदय सिंह ने जालौर में १२०५ ई० से १२४९ ई० तक शासन किया। गुलाम वंश के शासक इल्तुतमिश ने १२११ से १२१६ के बीच जालौर पर आक्रमण किया। वह काफी लंबे समय तक दुर्ग का घेरा डाले रहा। उदय सिंह ने वीरता के साथ दुर्ग की रक्षा की पंरतु अन्तोगत्वा उसे इल्तुतमिश के सामने हथियार डालने पड़े। इल्लतुतमिश के साथ जो मुस्लिम इतिहासकार इस घेरे में मौजूद थे, उन्होंने दुर्ग के बारे में अपनी राय प्रकट करते हुए कहा है कि यह अत्यधिक सुदृढ़ दुर्ग है, जिनके दरवाजों को खोलना आक्रमणकारियों के लिए असंभव सा है।जालौर के किले की सैनिक उपयोगिता के कारण सोनगरा चौहान ने उसे अपने राज्य की राजधानी बना रखा था। इस दुर्ग के कारण यहां के शासक अपने आपको बड़ा बलवान मानते थे। जब कान्हड़देव यहां का शासक था, तब १३०५ ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन ने अपनी सेना गुल-ए-बहिश्त नामक दासी के नेतृत्व में भेजी थी। यह सेना कन्हड़देव का मुकाबला करने में असमर्थ रही और उसे पराजित होना पड़ा। इस पराजय से दुखी होकर अलाउद्दीन ने १३११ ई० में एक विशाल सेना कमालुद्दीन के नेतृत्व में भेजी लेकिन यह सेना भी दुर्ग पर अधिकार करने में असमर्थ रही। दुर्ग में अथाह जल का भंड़ार एंव रसद आदि की पूर्ण व्यवस्था होने के कारण राजपूत सैनिक लंबे समय तक प्रतिरोध करने में सक्षम रहते थे। साथ ही इस दुर्ग की मजबूत बनावट के कारण इसे भेदना दुश्कर कार्य था। दो बार की असफलता के बाद भी अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर अधिकार का प्रयास जारी रखा तथा इसके चारों ओर घेरा डाल दिया। तात्कालीन श्रोतों से ज्ञात होता है कि जब राजपूत अपने प्राणों की बाजी लगा कर दुर्ग की रक्षा कर रहे थे, विक्रम नामक एक धोखेबाज ने सुल्तान द्वारा दिए गए प्रलोभन में शत्रुओं को दुर्ग में प्रवेश करने का गुप्त मार्ग बता दिया। जिससे शत्रु सेना दुर्ग के भीतर प्रवेश कर गई। कन्हड़देव व उसके सैनिकों ने वीरता के साथ खिलजी की सेना का मुकाबला किया और कन्हड़देव इस संघर्ष में वीर गति को प्राप्त हुआ। कन्हड़देव की मृत्यु के पश्चात भी जालौर के चौहानों ने हिम्मत नही हारी और पुन: संगठित होकर कन्हड़देव के पुत्र वीरमदेव के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा परंतु मुठ्ठी भर राजपूत रसद की कमी हो जाने के कारण शत्रुओं को ज्यादा देर तक रोक नही सके। वीरमदेव ने पेट में कटार भोंककर मृत्यु का वरण किया। इस संपूर्ण घटना का उल्लेख अखेराज चौहान के एक आश्रित लेखक पदमनाथ ने "कन्हड़देव प्रबंध" नामक ग्रंथ में किया है। महाराणा कुंभा के काल (१४३३ ई० से १४६८ ई०) में राजस्थान में जालौर और नागौर मुस्लिम शासन के केन्द्र थे। १५५९ ई० में मारवाड़ के राठौड़ शासक मालदेव ने आक्रमण कर जालौर दुर्ग को अल्प समय के लिए अपने अधिकार में ले लिया। १६१७ ई० में मारवाड़ के ही शासक गजसिंह ने इस पर पुन: अधिकार कर लिया। १८वीं शताब्दी के अंतिम चरण में जब मारवाड़ राज्य के राज सिंहासन के प्रश्न को लेकर महाराजा जसवंत सिंह एंव भीम सिंह के मध्य संघर्ष चल रहा था तब महाराजा मानसिंह वर्षों तक जालौर दुर्ग में रहे। इस प्रकार १९वीं शताब्दी में भी जालौर दुर्ग मारवाड़ राज्य का एक हिस्सा था। मारवाड़ राज्य के इतिहास में जालौर दुर्ग जहां एक तरफ अपने स्थापत्य के कारण विख्यात रहा है वहीं सामरिक व सैनिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा है।
जालोर के किले का इतिहास बहुत ही सुन्दर है और बहुत ही भव्य है जय जालोर जय जालोर प्यारो जालोर जबरो जबरो
ReplyDeleteजय जालोर
ReplyDeleteBest historical fort as jalor fort.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteBest historical place as jalor fort.
ReplyDeleteGood history of Jalore fort I like and love this jai Jalore jai marwar
ReplyDeleteJalore good city
ReplyDeleteVEERY NICE
ReplyDeleteGood history of jalore fort
ReplyDeleteI am proud of jalore fort,I like & love this fort
ReplyDeleteI am proud of jalore fort,I like & love this fort
ReplyDeletesir sirvi samaj ne help kiya tha kanhadev ji ki
ReplyDeletevo bhi add kre history me